9 पूजा 10वां दिन जतरा !
रंजीत कुमार
पंडी जी, कतेक पूजा कहिया जतरा? तब नवरात्र को लेकर हमारी कुल जमा जिज्ञाशा का सारांश यही था कि जात्रा यानी विजयादशमी कब है? इसलिए हम गांव के पंडित जी लोगों से बस इतना ही सवाल करते थे। लगभग हर साल उनका यही जवाब होता था- 9 पूजा दसम जतरा! मगर कभी-कभी उनकी गणना हमारे पक्ष में भी बैठ जाती थी और वे कहते थे- एहि बेर 8 दिन पूजा नवम जतरा। यानी इस बार मेला की प्रतीक्षा दो दिन छोटी होगी। तब हम सोचते थे कि क्या पंडी जी के पतड़ा (पञ्चाङ्ग ) में कोई ऐसा हेरफेर नहीं किया जा सकता कि 9 दिन जतरा हो और 10वें दिन पूजा! 9 दिन जतरा का अर्थ होगा, हम बच्चों को 9 दिन मेला करने का अवसर मिलेगा और उन खड़ूस कड़ियल बड़े-बुजूर्गों को स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ, मंत्रोचार के लिए केवल एक दिन मिलेगा। मगर ऐसा नहीं होना था, सो नहीं हुआ।
बचपन बीत जाने के बाद हर कोई बड़े-बुजूर्ग हो गए। हां, खड़ूस और कड़िलयल भी। वे भी कलश स्थापन के दिन से अपने बच्चों के लिए अपने पिता-चाचा-दादा-दादी की तरह हो जाते हैं। खुद भी सुबह से पूजा-पाठ के विधि-विधान में लग जाते हैं और बच्चों को लगा देते हैं- आठ बज गए, नहाया क्यों नहीं अब तक, फूल तोड़ा कि नहीं, धूमन लाओ, चंदन लाओ, तुम पंडित जी के यहां से दुर्गा पोथी ले आओ और तुम अजैया कें दुकान से अगरबत्ती ले आओ... आदेश पर आदेश... बच्चे तंग...
मगर मैं नहीं हुआ। अपन बिगड़ा हुआ बच्चा ही रहा... बस पांच मिनट में पूजा-पाठ पूरा कर लेता हूं। पूजा का सामान पूरा रहे या कम रहे, कोई दिक्कत नहीं। किसी बच्चे को कोई आदेश नहीं। बगल में बच्चे हल्ला करता रहे तो करता रहे। मुझे कोई दिक्कत नहीं। कभी-कभी तो महज देवी प्रणाम, उन्हें श्रद्धा पूर्वक स्मरण कर एक मिनट ही पूजा हो जाती है अपनी। हां, जतरा के दिन अपन का आडंबर आज भी वैसा ही है। मालूम है कि अब नीलकंठ के दर्शन संभव नहीं। तो भी सबेरे-सबेर बाइक लेकर चारों ओर बौख आया। हर बांस, पीपल, जंगल-झाड़ को तलाश आया। उस दौर में इतने परिश्रम से पांच-दस नीलकंठ के दर्शन हो जाते थे। अब नहीं होते, इसका मलाल जरूर रहता है। मगर असल आनंद तो नीलकंठ की तलाश है... हां, याद है। याद है- बचपन में भी असल सुख नीलकंठ को तलाश लेने में नहीं होता था, बल्कि तलाश में बौखने से होता था। इसके बाद मेले की तैयारी। मेले में खरीदे जाने वाले सामान की सूची, फूकना लेंगे, बंदूक लेंगे, पिपही लेंगे चार ठो, हां इस बार पिरका घड़ी भी लेंगे। अगर बुजूर्गों ने इजाजत दी तो शाम वाला नाच का भी दो-चार झलक ले लेंगे...एको ठो पैसा जेब में बचे नहीं रहने देंगे।
तो साथियो, मेला का समय हुआ चाहता है। अपन निकलता है.... जेब में ज्यादा नहीं, मगर जो है वो खरिच कर ही लौटेंगे। देसी नाच तो अब कहीं होता नहीं, इसलिए शाम को जल्द ही लौटना पड़ेगा। क्या कहा- आर्केस्ट्रा, जागरण ? माफ कीजिए- इस सब में अपन को कोई दिलचस्पी नहीं।
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