उत्तर प्रदेश...
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज : वह उत्तर प्रदेश जिसकी सीमा के अंदर त्रेतायुग की अयोध्या आती है, द्वापरयुग की मथुरा आती है, और सारे युग-युगांतर से प्राचीन काशी आती है। उसी प्राचीन पवित्र धरा के बागपत का एक छोटा सा गांव सिनौली आज विश्व के सारे इतिहासकारों के लिए आश्चर्य का विषय बना हुआ है। कारण यह कि दो वर्ष पूर्व हुए उत्खनन में वहाँ भूमि से कांसे-तांबे के कीलों से बने रथ, और तलवारें आदि मिली हैं। कार्बन डेटिंग पद्धत्ति से हुई जांच उन्हें 3800 वर्ष प्राचीन बताती है। अर्थात ये चीजें 1800 ईस्वी पूर्व की बनी हुई हैं। रथ का डिजाइन बता रहा है कि उसमें घोड़े जोते जाते होंगे। उस छोटे से हिस्से में हुई खुदाई से मिली चीजें प्रमाणित कर रही हैं कि तब इस क्षेत्र में एक अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न विकसित लड़ाकू सभ्यता थी।
मजेदार बात यह है कि हमारे यहाँ इतिहास की किताबों में पढ़ाया जाता है कि भारत में रथ और घोड़े बाहर से आर्यों के साथ आये, और आर्य भारत में पश्चिम से सिंधुघाटी सभ्यता को उजाड़ कर आये। सिंधु घाटी सभ्यता का समापन काल लगभग 1000 ईस्वी पूर्व का बताया जाता है, अर्थात लगभग उसी समय भारत में आर्य आये।
आर्यों के मूल स्थान के सम्बंध में भी यूरोपियन्स और भारत के कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने खूब भ्रम फैलाया है। उन्हें मध्य एशिया, हंगरी, डेन्यूब घाटी, दक्षिण रूस, आल्प्स पर्वत, यूरेशिया, बैक्ट्रिया और जाने कहाँ कहाँ से आया बताया गया है। प्रयास यह सिद्ध करने का था कि आर्य कहीं के भी हों भारत के नहीं थे। इसके लिए मैक्समूलर, गौइल्स, जे.जी. रोड, मेयर, पिग, रामशरण शर्मा, रोमिला थापर, और जाने किस किस ने अपनी मनगढ़ंत थ्योरी से आर्यों की उत्पत्ति के सम्बंध में रायता फैलाया है। आर्यों के भारत आने के समय को लेकर भी अलग-अलग दावे किये गए हैं, पर अधिकांश इतिहासकार 1500 ईस्वी पूर्व पर एकमत हैं।
अब सिनौली में इसके लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व के तीन तीन रथों का मिलना इतिहास के षड्यंत्रों को नंगा कर रहा है।
आजादी के बाद गढ़ा गया भारत का इतिहास शायद आधुनिक युग में विश्व का सबसे मूर्खतापूर्ण षड्यंत्र है। चंद विदेशी सिक्कों से अपनी कलम बेंच चुके फर्जी इतिहासकारों ने अपने इतिहास को जिस तरह निर्दयतापूर्वक विकृत किया वह बड़ा ही घिनौना है। आर्यों को बाहर से आना और यहाँ के मूल निवासियों को दास बनाने जैसे समाज में विद्वेष फैलाने वाले दावों से समाज को खंडित करने का जो प्रयास इन विदेशी शक्तियों ने किया वह बताता है कि भारत के प्राचीन गौरव को कलंकित करने का षड्यंत्र कितना शक्तिशाली था।
आपको जान कर आश्चर्य होगा कि पश्चिमी विद्वानों ने आर्यों को आक्रांता सिद्ध करने के लिए कैसे कैसे हास्यास्पद तर्क गढ़े हैं। उदाहरण देखिये, सीरिया के पास बोगजकोइ नामक स्थान पर हुई खुदाई में लगभग 4000 वर्ष प्राचीन संस्कृत के कुछ अभिलेख मिले जिनमें इंद्र, सूर्य, मरुत आदि देवताओं के नाम हैं। इस आधार पर अंग्रेज इतिहासकारों ने यह दावा कर दिया कि आर्य वहीं मध्य एशिया से निकल कर भारत आये। जबकि इसका अर्थ यह निकलना चाहिए कि भारतीय वैदिक आर्यों का प्रसार ईरान-सीरिया तक था, क्योंकि इसके अनेक साहित्यिक साक्ष्य मौजूद हैं।
सभ्यताओं के विमर्श में स्वयं को बड़ा सिद्ध करने के दो ही मार्ग होते हैं। या तो स्वयं का इतना उत्थान करो कि बड़े हो जाओ, या जो बड़ा है उसे किसी भी तरह छोटा सिद्ध कर दो। यूरोपियन्स ने स्वयं को सनातन से बड़ा दिखाने के लिए दूसरे रास्ते को अपनाया। भारत की प्राचीन संस्कृति इतनी विकसित और शक्तिशाली थी कि उसके समक्ष यूरोप का अंधा इतिहास कहीं खड़ा ही नहीं हो सकता था। सो उसे छोटा सिद्ध करने के लिए आर्यों को बाहरी और भेदभाव करने वाला बताया गया। पर सत्य को षड्यंत्रों से नहीं मारा जा सकता।
सिनौली में मिले साक्ष्यों ने आर्यों को लेकर गढ़ी गयी सारी पुरानी थ्योरी को बकवास सिद्ध दिया है। इससे यह दावा समाप्त हो जाता है कि आर्य बाहर से आकर सिंधु घाटी सभ्यता के निवाशियों से लड़े और उनको पराजित कर के भारत में स्थापित हुए। इससे यह सिद्ध होता है कि आर्य-द्रविड़ द्वंद वस्तुतः मूर्खतापूर्ण सिद्धांत है, सच यह है कि सिंधुघाटी सभ्यता और प्राचीन वैदिक सभ्यता दोनों एक ही समय में फल फूल रही दो अलग सभ्यताएँ थीं। यह वस्तुतः भारतीय इतिहास के साथ हुए षड्यंत्र की समाप्ति का प्रारम्भ है।
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