मुश्किल वक्त एक नाव भी सरकार ने नहीं दी....
दिनेश मिश्रा
जमशेदपुर : उन्होनें मुझे बताया कि, “हमारा गाँव नरईपुर बगहा-2 प्रखंड में पश्चिमी चंपारण जिले में है और यह गंडक नदी (नारायणी) के बायें किनारे पर स्थित है। यह गाँव कुछ ऊँचाई पर बसा हुआ है इसलिये बाढ़ का पानी सीधे तो यहाँ नहीं आता लेकिन इसके निचले इलाकों में पानी भर जाया करता है। 1954 में यहाँ भीषण बाढ़ आ गयी थी। उस वक्त मैं 14-15 वर्ष का रहा होऊँगा। हम लोगों का घर बहुत ऊपर था इसलिये वहाँ तक तो पानी नहीं आया था लेकिन गाँव के इर्द-गिर्द पानी भरा हुआ था। रेलवे लाइन हम लोगों के गाँव के पास से गुजरती है। जब बाढ़ आयी तो हम लोग अपने दरवाजे से बाढ़ देखने के लिये हाथी पर बैठ कर गये थे। यहाँ एक नॉर्थ बिहार शुगर मिल हुआ करती थी जिसका नाम आजकल बदल गया है लेकिन यह फैक्ट्री आज भी है। इस शुगर फैक्ट्री में एक फुटबॉल का मैदान है और उस फील्ड में जो गोल पोस्ट थे उसका केवल दो से ढाई फीट ऊपर वाला हिस्सा ही दिखाई पड़ता था। बाकी सब पानी में था। वह बड़ा भयावह दृश्य था। हम लोग रेलवे लाइन के पास तक गये मगर रेल सेवा पानी के कारण बन्द कर देनी पड़ी थी। रेल लाइन के पास पहुँच कर हम लोग हाथी से उतर कर हरहा नदी तक गये थे। यह नदी भी उफान पर थी और रेलवे लाइन तक तो बाढ़ का पानी लबालब था। हर तरफ पानी ही पानी दिखायी पड़ता था। शुगर मिल के चलते यहाँ गन्ने की फसल खूब होती थी। गन्ना बाढ़ बर्दाश्त कर सकता है बशर्ते वह ज्यादा दिनों तक न रहे। उस साल पानी तीन-चार दिन रहा फिर उतरने लगा और जब पानी उतरने लगा तो वह खेतों से भी निकल गया। इस पानी ने भदई फसल का बहुत नुकसान किया था। अगहनी धान की तो अभी तैयारी ही चल रही थी कि खेत खाली हो तो फिर उस पर रोपनी शुरू हो। भदई फसल नष्ट हो चुकी थी और जो थोड़ी बहुत बच गयी थी उसे दोबारा रोपना पड़ा था।
गंडक परियोजना पर तब तक काम शुरू नहीं हुआ था और बराज भी नहीं बना था। बराज स्थल हमारे गाँव से करीब चालीस किलोमीटर दूर है। बाढ़ आने की कोई खबर हम लोगों को नहीं थी और उन दिनों इस तरह की सूचना मिलने का कोई आसान स्रोत भी नहीं था। सरकार से भी सूचना मिलने का कोई साधन नहीं था। रेडियो वगैरह तो हमारे यहाँ पहली बार 1958-59 में आया होगा। सरकार तो खुद ही बाढ़ से निपटना सीख रही थी। जो कुछ भी सम्पर्क का साधन हो सकता था वह थाने के माध्यम से ही सम्भव था लेकिन थाने तक पहुँचने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते यह कहा नहीं जा सकता था। बगहा बाजार में जरूर उतना पानी नहीं था। हमारे गाँव में निचले हिस्सों में घरों का काफी नुकसान हुआ और वह इसलिये हुआ कि ज्यादातर मकान तो उस समय बाँस-फूस के ही बने हुए थे।
1952 में आम चुनाव के बाद यहाँ नयी सरकार बनी थी और सरकार का कोई अफसर या मंत्री हमारे यहां हाल-चाल लेने के लिए नहीं आया था। सरकार के पास से हम लोगों को कोई नाव भी नहीं मिली थी और उस वक्त सरकार के पास इतने साधन भी कहाँ थे? उसके पास सूचना भी कौन भेजता और कैसे भेजता? आदमियों का बाढ़ में मरने की कोई घटना मुझे याद नहीं है पर बहुत से हिंसक पशु जरूर जंगल का इलाका डूबने की वजह से भाग कर इस इलाके में आ गये थे जिनका सब को डर था लेकिन उन्होंने भी कोई बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया हो ऐसा सुनने में नहीं आया क्योंकि वह खुद अपनी जान बचाने की फिक्र में रहे होंगे।
(श्री जगदम्बा प्रसाद मिश्र, 83 वर्षीय, ग्राम-पोस्ट नरईपुर, जिला पश्चिम चंपारण से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश।)
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