"उबारो राम... अब सहन नहीं होता। उबारो..."
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज : माता अनुसुइया के आश्रम से निकल कर माता सीता और लक्ष्मण के सङ्ग भगवान श्रीराम ऋषि शरभंग के आश्रम में पहुँचे। क्षीण काया वाले ऋषि, जिनका शरीर शरीर न हो कर केवल अस्थियों का ढाँचा दिख रहा था। राम को देखते ही रो पड़े शरभंग... ऐसे, जैसे युगों युगों से पीड़ा के अथाह समुद्र में डूब-उतरा रहा कोई प्राणी अपने उद्धारक को देख कर रो उठता है।
आँखों से बहती तरल पीड़ा के साथ भर्राए स्वर में बोले ऋषि, "उबारो राम... अब सहन नहीं होता। उबारो..." "क्षत्रित्व के समक्ष ब्रम्हणत्व रो उठे तो यह क्षत्रिय की ही नहीं पूरी सभ्यता की पराजय है ऋषिवर! आप बताइये तो, राम प्राण दे कर भी आपकी पीड़ा को समाप्त करने का वचन देता है।" क्रोध से काँप उठे थे राम...
"इस वन में चारों ओर बिखरे अस्थियों के ढेर देख रहे हो राम? ये उन ऋषियों की अस्थियाँ हैं, जिन्हें वे मार कर खा गए हैं। जाने कितने समय से यह धरा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी राम! अब सहन नहीं होता... तुम्हारा युग है और तुम्हारा देश! रक्षा करो राम... धर्म की रक्षा करो..." शरभंग के जुड़े हुए हाथ अलग नहीं हो रहे थे।
राम गरज उठे, "कौन है? कौन कर रहा है निर्मम अत्याचार? मनुष्य हो कर मनुष्य का भक्षण करने वाले नराधम कौन हैं? बताइये ऋषिवर! उनसे इस सृष्टि को मुक्त करने का वचन देता हूँ मैं..." "वे मनुष्य नहीं हैं। उनके नाम मनुष्य जैसे हैं, पर वे मनुष्य नहीं। कुछ स्वर्णमुद्राओं के बदले अपना धर्म बेंच चुके, विदेशों से आयातित क्रूर विचारधारा के दास वे दुष्ट, मनुष्य नहीं हैं। वे राक्षस हैं राक्षस। वे ऋषियों को मार कर खा जाते हैं। यह वनक्षेत्र पूर्णतः उनके अधीन हो चुका है। वे नहीं चाहते कि धर्म का नाम लेने वाला कोई व्यक्ति इस वन में प्रवेश भी करे... देश के भीतर बन चुके इस विदेशी उपनिवेश को मुक्त कराओ राम! यह पूरा राष्ट्र तुम्हारा है, सो इसे मुक्त कराने का उत्तरदायित्व भी तुम्हारा ही है।" शरभंग बोलते-बोलते काँप उठे थे।
राम ने दाहिने हाथ से अपने धनुष को हवा में लहराया और प्रतिज्ञा के स्वरों में बोले, "आप निश्चिन्त होइये ऋषिवर! राम इस धरा को राक्षसी अत्याचारों से मुक्त कराने का प्रण लेता है। मेरे वनवास का शेष समूचा समय इन राक्षसों के संहार में ही कटेगा" "मैं तो अब मुक्त हूँ राम! मेरा कार्य सम्पन्न हुआ। मैं तो अब इस शरीर का दाह करने जा रहा हूँ। मुझे आप अपने उस लोक में स्थान दीजिये।"राम चिंतित हो उठे। बोले, "शरीर का दाह? क्यों ऋषिवर? इसकी क्या आवश्यकता? मैंने कहा न, अब कोई राक्षस किसी ऋषि को प्रताड़ित नहीं कर सकेगा। आप निश्चिंत रहिये।"
शरभंग पहली बार मुस्कुराए। बोले, "आवश्यकता है राम! सो रही संस्कृति को जगाने के लिए ऋषियों को मरना भी पड़ता है। मेरा आत्मदाह आपको सदैव स्मरण कराता रहेगा कि इस धरा को राक्षसी अत्याचारों से मुक्त कराना है। मेरा आत्मदाह आपके ऊपर ऋण है। इस धरा को राक्षसों से मुक्त कर के ही आप इस ऋण से मुक्त हो सकेंगे..."
राम कुछ न कह सके। उनके देखते देखते ऋषि ने आसन लगाया और अपने शरीर का दाह कर दिया। राम की आँखें भीग गयी थीं। करुणा के सागर उस क्षत्रिय ने अपने धनुष की टंकार छोड़ी। जैसे समय से कह रहे हों, "ठहरो! मैं राम तुम्हारे अत्याचारों को सावधान करता हूँ"
युगों बीत गए। एक बार पुनः भारत के वनों में ऋषियों की अस्थियां बिखरने लगी हैं। पर राम के देश में रामत्व न समाप्त हुआ है, न समाप्त होगा। कोई न कोई उभरेगा अवश्य...
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