काहे माया में भुलाइल बाड़s तोता हो...
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज : उस कुरुक्षेत्र में खड़े हो कर इस सृष्टि के एकमात्र पूर्ण पुरुष भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कुल मिला कर यही तो कहा था, कि तुम अपना कर्म करो! तुम न किसी को बचा सकते हो, न ही किसी को मार सकते हो। तुमको न किसी और के आदि-अन्त का ज्ञान है, न स्वयं का... तुम बस एक माध्यम हो, और नियति को तुमसे जो कराना है वह करा ही लेगी। इसलिए माया छोड़ो, मृत्यु का भय भी छोड़ो, मुक्त हो कर अपना कर्म करो...
हमारे लोक ने जीवन की तुलना दीये से की थी। दीपक में मनुष्य कई घण्टों तक जलने भर का तेल भरता है। दीपक उतने देर तक जलता भी है, किन्तु यदि बीच में हवा तेज बह गई तो दीपक तेल रहते हुए भी बुझ सकता है। जीवन भी वैसा ही है। हमें पता है कि जीवन के दीपक में सौ वर्षों तक जीने भर का तेल है, लेकिन हम नहीं जानते कि हवा कब तेज हो जाएगी। हवा की नियति केवल वह नियंता जानता है।
वर्तमान का ही एक उदाहरण है माइकल जैक्सन का। उसने डेढ़ सौ वर्ष तक जीने का लक्ष्य तय किया था, और इसके लिए उसने पूरी फौज बनाई थी। वह सांस तक डॉक्टरों के सलाह पर ही लेता था। उसने अपने ब्लड ग्रुप वाले पचासों लोगों को सारी सुविधाएं दे कर अपने पास रखा था कि वे आवश्यकता पड़ने पर उसे अंग डोनेट कर देंगे। उसके पास डेढ़ सौ वर्षों का फुलप्रूफ वैज्ञानिक प्लान था, बस वह भूल गया था कि वह इस रंगमंच का अभिनेता है, निर्देशक नहीं। वह पचास वर्ष में ही निपट गया। सारी तैयारी धरी रह गयी।
भारत में हजारों वर्ष लम्बी आध्यात्मिक परम्परा रही है। आध्यात्म को लेकर इतना मंथन और कहीं नहीं हुआ। इस देश में हजारों सम्प्रदाय जन्में और मरे, पर सबने कुछ न कुछ पीछे अवश्य छोड़ा। और यही कारण था कि ग्रामीण भारत के एक चरवाहे के पास भी विदेश के सेण्टों-पोपों से अधिक आध्यात्मिक ज्ञान था। और इसीलिए भारतीय लोग अपेक्षाकृत अधिक मुक्त भाव से जीवन जीते थे। जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में कभी रामचरितमानस देखा भी नहीं, उसे भी इतना अवश्य याद होता था कि होइहें वही जो राम रचि राखा... जीवन को पूर्णतः भारत ने ही समझा था।
आप किसी देहाती बुजुर्ग से बात कीजिये, वह आधे घण्टे की बात में दस बार कह देगा कि सब ऊपरवाले के हाथ में है। बुद्धि जहाँ काम करना बंद कर दे वहाँ से आगे का मालिक राम... और यही कारण है कि देहाती भारत दुखों से पराजित नहीं होता। पश्चिम की भौंडी नकल कर के जीनेवाले करोड़पति दो महीने के लॉक-डाउन से हार कर पूरे परिवार के साथ आत्महत्या कर लेते हैं, पर गाँव का गरीब देहाती मजा लेने के लिए कोरोना माई को लड्डू चढ़ा रहा है।
पश्चिम कहता है कि जीवन युद्ध है, पर भारत कहता रहा है कि जीवन उत्सव है। भारत ने धन,बल, शक्ति, सामर्थ्य के पीछे बदहवास हो कर भागने को अज्ञान कहा है और मुक्त भाव से दुखों में भी मुस्कुराते रहने की ही प्रशंसा की है।
विश्व अभी महामारी की चपेट में है और हम महीनों से डरे डरे जी रहे हैं। पर कब तक? भय जीवन का स्थाई भाव नहीं है। मनुष्य भय के साथ लगातार नहीं जी सकता, उसे इस भय की छाती तोड़ कर आगे निकलना ही होगा... मृत्यु के भय पर जीवन की बलि नहीं दी जा सकती। इस भय से आगे निकल कर मुस्कुराना ही होगा...
सो मुस्कुराइए! क्योंकि जीवन संघर्ष नहीं उत्सव है...
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