अच्छा सुनिए !
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज : चीन भारत से केवल और केवल एक बात में आगे है, कि उसने अपने देश में गद्दारों को प्रश्रय नहीं दिया है। वह राष्ट्रद्रोहियों के पंख काटना जानता है, हम नहीं जानते। हमने तो गद्दारों को बुद्धिजीवी नाम दे दिया है... हम गद्दारों की बात सुनते हैं, उन्हें मुफ्त की मलाई खिलाते हैं, उनकी मांगे पूरी भी करते हैं, और चुपचाप उनकी गालियां भी सुनते हैं।
शौर्य और युद्धकौशल के मामले में चाइनीज चरफिटे कहीं से भी भारत के सामने खड़े नहीं होते... चीन के पास न भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस का तोड़ है, न ही उनके अतुल्य बाहुबल का उत्तर है। रही बात सैन्य उपकरणों की, तो इस मामले में कोई किसी से पीछे नहीं।
युद्ध केवल तोपों, बमों और जहाजों के बल पर नहीं जीते जाते, युद्ध जीते जाते हैं साहस के बल पर! और पूरी दुनिया जानती है "सवा लाख से एक लड़ाऊं" वाला साहस केवल और केवल भारतीय सेना के पास है। माथे पर कफ़न बांध कर लड़ने वाली महान राजपूती परम्परा वाले देश के सैनिक इन चाइनीज चवन्नियों को चबा जाने में पूर्णतः सक्षम हैं।
1962 के युद्ध में भी भारतीय सेना से अधिक भारतीय संसद पराजित हुई थी। पर अब युग बदल गया है। अब संसद की अध्यक्षता भी वे कर रहे हैं जो ईंट का उत्तर पत्थर से देना जानते हैं। अब जितनी मजबूत सेना है, उतनी ही मजबूत है सरकार... चीनियों की आंख नोच लेने का हुनर सेना भी जानती है, और आज की सरकार भी... और यही कारण है कि उस रात से ही चीन शांति का राग अलाप रहा है।सो यदि युद्ध हुआ तो विजय भारत की ही होगी, यह तय है। कोई शक नहीं, कोई सन्देह नहीं...
भारत की एकमात्र पीड़ा है घर में बैठे वे चंद धूर्त लोग, जो खाते तो भारत का हैं पर गाते चीन का हैं। उन्होंने न नेहरू के समय भारत का साथ दिया था, न मोदी के समय भारत का साथ देंगे। भारत-चीन युद्ध के समय "दिल्ली दूर बीजिंग नजदीक" और "आ रही है मुक्ति वाहिनी चीन से" जैसे निर्लज्ज नारे गढ़ने वाले अब भी अपनी गद्दारी पर शर्मिंदा नहीं हैं। उनकी परिभाषा के अनुसार राष्ट्र के साथ द्रोह ही बुद्धिजीविता का प्रमाण है।
कुछ भी हो जाय वे चीन का विरोध नहीं करेंगे। हजार तरह के फर्जी बहाने गढ़ कर वे अपनी सरकार का ही विरोध करते रहेंगे। उस दिन जब तीन सैनिकों के बलिदान का समाचार मिला तो वे सरकार का सीना नापने लगे, और रात तक जब चीन के भयानक नुकसान की खबर मिली तब भी समर्थन में नहीं आये बल्कि सरकार की कूटनीति पर प्रश्न खड़े करने लगे हैं। ये हमेशा सेना का मनोबल भी तोड़ते रहे हैं, और सरकार का भी। 1962 में नेहरू चीन से ही नहीं, इन धूर्तों से भी पराजित हुए थे।
अगर इनका हल ढूंढ लिया जाय तो भारत को किसी और से कोई खतरा नहीं है। न पाकिस्तान से, न चीन से... भारत की सेना इन चिंटू-पिन्टूओ को सुधारने का हुनर जानती है।
सो निश्चिन्त रहिये! अपनी सरकार और अपनी सेना पर भरोसा रखिये। और यदि कुछ करना चाहते हैं इन वामपन्थी धूर्तों का विरोध कीजिये। ये जिस मंच पर प्रोपगेंडा परोसें उसी मंच पर विरोध कीजिये... ये जिस भाषा में बोलें, उसी भाषा मे उत्तर दीजिये। युद्ध काल में प्रजा का यही कर्तव्य है कि वह घर में बैठे शत्रुओं से लड़े...
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